Friday, December 4, 2009

अंतर्द्वंद

जिन्दगी बड़ी ही रोचक कहानी है ,चाहे वो किसी की भी हो मेरी या किसी और की हर नया दिन नया पन्ना लगता है ,और हमेशा अगला पन्ना जानने की इच्छा बनी रहती है जब भी जिन्दगी में दो रास्ते जाते हैं ,तो सामान्य आदमी भटक ही जाता है , जो चीज उन्हें भटकने से रोकती है वो है उनका "मूल्यांकन", वो कितना सच बोलते हैं अपने आपसे आदमी दूसरों से झूट बोल सकता है पर अपने आप से नही ,और जिसने अपने आप से झूट बोलना सीख लिया उसका भटकना तो निश्चित है
पिछले कुछ दिनों से जिन्दगी इन्ही तरह के दोराहों से गुजर रही है दिल किसी और को सही कहता है और दिमाग किसी और को पर मैं जान चुका हूँ की दिल सही है या दिमाग ये दिमाग मेरा है और इसने जो समाज में होते देखा है ,वही करना चाहता है ,क्योंकि बदले की भावना इसी दिमाग की उपज है जिसने मेरे साथ जैसा किया उसके साथ वैसा ही करूँ ,चाहे वो अच्छा हो या ग़लत ऐसा नही है की मेरा दिमाग सिर्फ़ ग़लत करने को कहता है ,जिसने मेरे साथ अच्छा किया ,उसके साथ उससे कहीं अच्छा करने को भी यही कहता है
पर ये दिल बड़ा अजीब है ,और सच मानिये कहीं कहीं इस दिल में आपके माँ-बाप संस्कार समाये हुए हैं ,जो आपको एहसास दिलाते रहते हैं की क्या सही है और क्या नही और यहीं से शुरू होता है अंतर्द्वंद दिल और दिमाग का पर सच तो यही है की इस दिल ने कभी झूठ नही बोला ये दिल ही है जो ये कहता है की किसी और के लिए तुम कैसे बदल सकते हो कोई तुम्हारे साथ कुछ भी करे , तुम हमेशा दूसरों के साथ अच्छा करना अगर दूसरों ने तुम्हे बदल दिया तो इसका मतलब है की वो ज्यादा प्रवाभी हैं ,पर क्या ऐसा है ?

तुम इतने प्रवाभी बनो की तुम दूसरों को बदल सको दुसरे तुम्हे नही ......................


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