Monday, August 17, 2015

क्या दौर आया ज़माने का , कि हिसाब करने वाले बिक  गए,
सच और झूठ क्या है , ये बताने वाले बिक गए। 
आँखों से आँसू नहीं छलकते अब ,
क्या कहें मृदु , शायद आंसुओं के पैमाने बदल गए। 
इंसानियत छोड़ , इंसान बदल गए ,
उस छोटे से कसबे में जो दिखते थे घर, वो मकाँ बदल गए। 
देखता हूँ उनको नहीं डरते गलत करने में ,
सोचते हैं गलत करने क अंजाम बदल गए। 
सच्चे हैं जो परेसान हुआ करते हैं ,
कोसते हैं , हमारे तो भगवन बदल गए। 
बदलाव का ये क्या मंज़र दिखाया तूने ,
देखते देखते लोगों के ईमान बदल गए। 

Friday, March 27, 2015

सवाल ?

कितनी बनावटी जिंदगी जीते हैं हम , लड़का लड़की एक सामान का नारा बचपन से सुना था मैंने।
बचपन में सच में हम कितने भोले होते हैं , मैंने इस  बात को मान भी लिया की हाँ "लड़का  लड़की एक सामन होते हैं। " 
दोनों की शिक्षा जरुरी है। 
 दोनों का भविष्य उज्जवल होना चाहिये। 
 दोनों को आगे बढ़ना चाहिए , कंधे से कन्धा मिला कर काम करना चाहिए।  
कोई किसी से कम नहीं है।  
दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। 

इत्यादि…………… 


यही सब सुना था यही सब पढ़ा था यही सब देख रहा था अपने चारों तरफ , तो बस इसे ही सच मान लिया। 
आज जब मेरी नज़रों का दायरा कुछ बढ़ा तो समझ में आया , सच के  आगे भी एक सच है। 

सच तो ये भी है कि  शादी के  बाद अगर पति पत्नी के घर रुक जाये , तो बातें हो जाएँगी पत्नी के  घर रहता है ,
जोरू का गुलाम बन गया, क्युकि इस समाज को पता है की पत्नी को तो पति का गुलाम होना चाहिए इसलिए उसे पति के  घर जाकर उसकी गुलामी करनी चाहिए।  
लड़की अगर पति के घर चले जाये तो सब सामान्य , क्या किया उसने कुछ भी तो नहीं …… 
पहले मुझे लगता था की कितना बड़ा त्याग करती हैं बेचारी , पर नहीं मुझे so  called  समाज  ने जल्दी ही समझा  दिया , ये तो सदियों से होता चला आया है कोई बहुत बड़ा काम नहीं करती लड़की। 
खैर …… 
अपना घर छोड़ क जाने क बाद मिला क्या उसे एक अहसान अपने पति का -"मेरे घर में रहती हो मेरे हिसाब से चलना होगा "
हाहहहहह ..... 
भई, घर छोड  के  आये वो और यहाँ भी कोम्प्रोमाईज़ करे वो ……… 
हाँ हाँ उसे तो करना ही पड़ेगा वो लड़की है।
और कोम्प्रोमाईज़ करे भी क्यों न पापा ने तो दान दे दिया न - "कन्यादान "
और कह दिया -"बेटी वही तेरा घर है अब "

पापा का घर , पति का घर,  इन दो घरों के बीच कहा है उसका घर ?

किसी की पत्नी का देहांत हो जाये तो चार लोग उसे समझायेंगे की - "बेटे पूरी जिंदगी पड़ी है, किसी का साथ जरुरी है कब तक पुरानी बातें लेकर बैठे रहोगे ,तुम्हे शादी कर लेनी चाहिए। "
और किसी के  पति का देहांत हुआ तो यही चार लोग -"बेटी अब तो तेरा यही नसीब है , इसी  के सहारे तुझे जिंदगी गुजारनी है। "

क्यों हैं ऐसे दो मापदंड  ? लड़की के लिए कुछ और लड़के के लिए कुछ और  ??
मुझे नहीं समझ  आता  अब लड़का लड़की  एक सामान  का वो नारा। 

क्यों शादी के बाद एक बाप  मजबूर  हो जाता है की ये जानते हुए की उसकी बेटी परेसानी में है , नहीं कर पता इतनी हिम्मत की उसे घर वापस  ला सके ?
क्यों इस सामाज के नियम- कायदे  आड़े आते हैं उस मजबूर बाप के ?

क्यों वो लड़की नहीं कर पति इतनी हिम्मत की जा सके अपने पिता के घर ?
पिता के घर जाने से सरल क्यों उसे मर जाना लगता है ?
क्यों हम ऐसी परम्पराएँ बनाते हैं जो किसी की जिंदगी ही छीन ले  ?
परम्पराएँ और समाज तो जिन्दा लोगो क लिए हैं न, मुर्दो  क लिए नहीं ?

ऐसे  कितने ही क्यों से भरे सवाल दिलो दिमाग में गोते खा रहे हैं। 
और जवाब  दे सकते हैं तो तो बस हम , बस इतना करके की हम न बने कारण  इन सवालों का। 
 क्युकी हम से ही तो ये समाज बनता है। 
ना  हो हमारे दिलो दिमाग में दो मापदंड।  
एक लड़की क त्याग की हम क़द्र कर सकें। 

उस बाप की इज़्ज़त कर सकें , जिसने अपनी बेटी का दान दे दिया किसी और के  जीवन के लिए। 





ये क्या क्या हो रहा है

ये क्या क्या हो रहा है........  इंसान का इंसान से भरोसा खो रहा है, जहाँ देखो, हर तरफ बस ऑंसू ही आँसू हैं, फिर भी लोगों का ईमान  सो रहा है।  ...